जिंदगी से बढ़कर नहीं है जॉब

How fresh graduates, mid-level executives & senior management can survive the jobs squeeze

बतौर सेल्स इग्जेक्यूटिव काम करने वाले अजय (काल्पनिक नाम) को जब 2009 में लेड ऑफ (नौकरी से निकाला जाना) किया गया तो उन्हें गहरा सदमा पहुंचा था। इसके बाद, एक नौकरी मिली भी लेकिन कुछ महीनों बाद वो भी चली गई। आज 4 साल बीत चुके हैं, लेकिन अजय के तब और अब के व्यवहार में काफी बदलाव आया है। अजय कहते हैं कि उस वक्त मुझे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है।

पर्सनल फेल्योर नहीं नौकरी जाना
अजय बताते हैं, अब ज्यादा बुरा नहीं लगता। उस वक्त मुझे कॉन्फिडेंस ही नहीं था कि मुझे कोई नौकरी मिलेगी भी कि नहीं? अब मुझे पूरा विश्वास रहता है कि नौकरी मिल ही जाएगी। अजय जैसे तमाम लोग हैं, जो अब इस तरह की दिक्कतों से ज्यादा परेशान नहीं होते। वैसे भी अब कर्मचारी स्लोडाउन के इस दौर में नौकरी से निकाले जाने को अपनी पर्सनल फेल्योर नहीं मानते। हालांकि, टेंशन तो रहती है लेकिन इससे शर्मिंदगी महसूस करना बिल्कुल सही नहीं।

नौकरी न मिलना असली चिंता नहीं
आदित्य बिरला गु्रप में डायरेक्टर, ग्लोबल एचआर एंड सीईओ, कार्बन ब्लैक बिजनेस संत्रुप्त मिश्रा कहते हैं कि एक नौकरी जाने का यह मतलब नहीं कि अब नौकरियां ही नहीं रह गई हैं। चिंता नौकरी न मिलने की नहीं, बल्कि किस तरह की मिलेगी, की होती है।

मार्केट है वजह आप नहीं
मिश्रा बताते हैं कि ग्लोबलाइजेशन की वजह से भारतीय नौकरीपेशा पश्चिम की इस धारणा से अच्छे से वाकिफ हैं कि नौकरी से निकाले जाना मार्केट के उतार-चढ़ाव का एक हिस्सा है, न कि उनकी निजी विफलता।

लर्निंग प्रोसेस का हिस्सा
एचसीएल टेक्नॉलजीस में चीफ एचआर ऑफिसर पृथ्वी शेरगिल जॉब मार्केट में आए इस बदलाव को कुछ अलग ढंग से समझाते हैं। उनके मुताबिक, खास हुनर वाले लोगों की मांग में आई अचानक से कमी एक अच्छी ओहदे वाली जॉब का कचरा कर सकती है।

स्थायी, अस्थायी नौकरी का फर्क घटा
मॉडर्न वक्त में कम समय तक नौकरी करने का चलन बढ़ गया है। इस कारण स्थायी और अस्थायी नौकरी के बीच का फर्क अब कम हो गया है और एक कंपनी से दूसरी कंपनी में जाने का चलन बढ़ा है।

असलियत सबको है पता
नवनीत सिंह, चेयरमैन एंड एमडी, इंडिया कोर्न फैरी इंटरनैशनल बताते हैं कि 2001 में बैंकों में बहुत सारे लोगों ने नौकरियां गंवाई थी, जिससे कई परिवार टूट गए थे। अब लोग और ऑर्गनाइजेशन, दोनों ही इसके साथ जीना सीख गए हैं। टैलंट मार्केट अब यह फर्क करना जान चुकी है कि कौन बेकार परफॉरमेंस के लिए निकाला गया और कौन मंदी के कारण। अब लेड ऑफ्स के बाद कर्र्मचारियों को उनके टैलंट और मेरिट के आधार पर जज किया जाता है।

कंपनियां हैं सजग
भारतीय कंपनियां अब अपने कर्मचारियों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गई हैं। कई कंपनियां तो अब छंटनी करने से पहले अपने कर्मचारियों के भविष्य के प्रति सजग रहती हैं और उन्हें अपने साथ किसी-न-किसी तरह से जोड़े रखती हैं। सिंह बताते हैं कि किस तरह से एक लीडिंग बैंक ने अपने कर्मचारियों को काउंसलिंग के लिए बुलाया था। कंपनियां अब स्लोडाउन में भी अपनी इमेज के लिए सजग हो गई हैं।